आज का बाल-साहित्य

 विद्यार्थी भारत का भविष्य, विश्व का गौरख एवं अपने माता-पिता की शान है। उसकी और करने हेतु आवश्यक सु-साहित्य का सिंचन किया जाना चाहिए। बच्चों के जीवन में सुप्त

अपने माता-पिता की शान है। उसके अन्दर सामथ्र्य का असीम भण्डार रुपा हुआ है। उसे प्रकट प्राणशक्ति को जगाने के लिए उपयोगी साहित्य का सर्जन करना चाहिए। यह एक स्वयासक

चाहिए। बच्चों के जीवन में सुप्त अवस्था में छुपे हुए उत्साह तत्परता, निर्भयता और के लिए उपयोगी साहित्य का सर्जन करना चाहिए। योसद्ध सत्य है कि- नदी, पर्वत, वन और मैदान से भी आधक स्तत्व वहां की बाल सम्पदा पर निर्भर करता है। वही उसकी शक्ति, उसकी सच्ची संपदा होते।

शुभ साहित्य का सिंचन किया जा सकता है। नन्हा बालक कोमल पौधे की तरह होता है, उसे जिस ओर मोड़ना चाह, बचपन से ही शुभ-साहित्य का सिंचन किया जाये तो आगे चलकर वे बालक क्ट-वृक्ष के समान विकसित होकर भारतीय सकते है। आज सबके लिए सब कुछ है अगर नहीं तो सिर्फ नन्हे-मुन्नों के पढ़ने के लिए कुछ नहीं है। आज जब भी

कुछ और पढ़ना चाहता है तो उसके सामने यह प्रश्न-चिह्न है कि वह क्या पड़े? अभिभावक भी उसकी समस्या

किसी राष्ट्र का अस्तित्व वहाँ की बाल सम्पदा पर।

हँसते-खेलते बालकों में शुभ साहित्य का सिंचन किया जा सकता है। मोड़ सकते हैं। बच्चों में अगर बचपन से ही शुभ-साहित्य का सिंचन गौरव की रक्षा करने में समर्थ हो सकते हैं। आज सबके लिए सब कुछ अगर कोई बच्चा स्कूली किताबों के अतिरिक्त कुछ और पढ़ना चाहता है तो उसके सामन का समाधान दे पाने में असफल है। बाल-साहित्य की इतनी घोर उपेक्षा पहले कभी नहीं पहले लेखकों का साहित्य इस दिशा में अग्रसर था। सच बात तो यह

साहित्य इस दिशा में अग्रसर था। सच बातमोजतक कोई लेखक बाल-साहित्य लिखे उसे लेखकहा नहा माना जाता परन्त आज स्थिति यह है कि बाल-साहित्य लिखना दसरी श्रेणी का लेखन माना जाता है। उनका साथ

हित्य लिखना दूसरी श्रेणी का लेखन माना जाता है। उनकी सोच कुछ सीमा तक सही भी है। क्योकि टी.वी. एवं कम्प्यूटर से आक्रांत स्कूली किताबों के बोझ तल दबे बच्चे आखिर कब और क्या पढ़े ? किन्तु आज

च्चे आखिर कब और क्या पढ़े? किन्तु आज बच्चों के विचारों में बदलाव आया परन्तु इसमें बच्चों का दोष नहीं है। दोष उन अभिभावकों का जो बच्चों की कि इच्छाओं को दबाकर उनके माध्यम से अपनी इच्छाए पूरा करत हावाष उन साहित्यकारों का जो बच्चों की सोच रुचि एवं बौद्धिक स्तर के अनरूप साहित्य नहीं लिख पा रहे। दोष उन शिक्षा सत्याजा भावनामाका स्पेक्षा करती है। वास्तव में बालमन की इच्छा कोई जानना नहीं चाहता है। घर में अभिभावक,शाला में शिक्षक समाजमा अपना मन का थोपी जाती है। आज भी बच्चे संवेदनशील जागरूक है पर मल्य बिखर रहे हैं और यहीं पर अच्छे बाल-साहित्य की आवश्यकता हाता हा आज बच्चों की दनिया में उनके आस-पास के वातावरण में जो परिवर्तन हो रहा है. उसे समझना होगा। बच्चे क्या सोचत, किस रूपम सोचते हैं, इनकी जानकारी भी होनी चाहिए। बच्चाकालए एसा लिखना चाहिए जिसे बच्चे खद से जोर सकें। किसी भी प्रकार से वह उन्हें जबरदस्ती थोपा हआ नलगे। उनके परिवेश

चना हा उन्हें समझ में आएगी। बच्चों को यह लगना चाहिए कि उनकी रचना उनकी दुनिया से ली गई है। बच्चों के लिए कई तरह के सकारात्मक साहित्य लिखे जा सकते हैं, पर यह अच्छा है इसी को पढ़ो' यह कहना अच्छा नहीं। उनकी रुचि के अनुसार चुनाव करने कट होनी चाहिए। बच्चों को पारम्परिक एवं प्राकृतिक से जडी हई कथा बालमन को निश्चित ही आकर्षित करेगी।

इस कल्पनाशील ससार के अतिरिक्त एक यथार्थ की भी एक दनिया रही है, वह है सामाजिक एवं समसामयिक सघर्ष की दुनिया। यह संघर्ष अधिकतर बच्चों का सघष है। बच्चों के मन में अनेक प्रश्न पैदा होते हैं। इन प्रश्नों को उजागर करना और रचनात्मक ढंग से समाधान करना बालका अंग होना चाहिए। बच्चों के अगणित प्रश्नों का उत्तर कितना रोचक एवं रचनात्मक तरीके से बच्चों को दिया जा सकता है, यह साहित्यकारों नौती है। बच्चों की दुनिया से लिखे बिना साहित्यकार अधरा है। बच्चों की रुचियों एवं समस्याओं को बहुत करीबी से महसूस करना

समाज एवं राष्ट्र इन सबके नैतिक कर्तव्य की बात है। कॉमिक्स बच्चों में सर्वाधिक लोकप्रिय है। हैरीपॉटर की लोकप्रियता किसी से सपी नहीं है। हर गली-मुहल्ले में बिकन वाला 95 प्रतिशत कॉमिक्स का स्तर निम्न है। अतिरिक्त और उपलब्ध हो पाने के कारण बच्चा जो हाथ

से ही पढ लेता है। बच्चा अपने पाठ्यक्रम की किताबों से ऊबा हआ जो भी साहित्य हाथ में आता है उसको पढ़ लेता है, ऐसे निम्न स्तर साहित्य से बालमन पर गलत असर करता है। विदेशो में 'कॉमिक्स कोड अथॉरिटी' होती है जिसकी मंजूरी के बिना कॉमिक्स छप नहीं सकते हैं परन्त हमारे यहाँ ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। शिक्षा मंत्रालय का भी कोई नियंत्रण नहीं है।

बाल-साहित्य में बच्चों का स्वयं का स्थान होना चाहिए। बच्चों को यह महसूस होना चाहिए कि जो वह पढ़ रहा है, वह उसके साथ घट रहा है। इस दिशा में हर राज्य का दायित्व होता है कि प्रदेश में बाल-साहित्य अकादमी जैसी संस्थाएं होनी चाहिए। उसके संरक्षण में ही बाल-साहित्य निकलने चाहिए। यह सत्य है कि पहले के बच्चों एवं आज के बच्चों के विचारों में, रहन-सहन में, चिन्तन में जमीन-आसमान का अन्तर है। संयुक्त परिवारों में विघटन से उनका पारिवारिक दायरा सिमटा है। वहीं माता-पिता मशीनी जिंदगी की दौड़ में उन्हें बलात धकेल दिये जाने से दुनिया के बारे में नन्ही-सी उम्र में ही उन्हें ढेरों जानकारियाँ हो जाती हैं। इन सबके होते हुए भी क्या बालमन की भावनाओं को बदला जा सकता है।

बच्चे कल के हो या आज के उनका नैसर्गिक भोलापन तो यथावत् रहेगा। उनकी सरलता, उनके सुहृदय को सकारात्मक बाल-साहित्य के सजन से नई दिशा दी जा सकती है। बच्चों के मानसिक विकास में व्यक्तित्व विकास में साहित्य महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। कभी-कभी तो कुछ पढ़ते हए कोई रचना बालमन को इतना प्रभावित करती है कि सम्पूर्ण जीवनक्रम ही बदल जाता है। साहित्यकारों का यह नैतिक दायित्व है कि वे ऐसे बालसाहित्य का सर्जन करें, जो बालमन के टूटते-बिखरते सपने-भावनाओं को संवारे, पोषण दें और सही दिशा में नियोजित करें।

                                                                                                                                                                                                                                                                                                       ys[kd- कैलाशराम साँगवा