भारत का कण-कण ललकारे (२६)

दुर्दम्य दमन का चक्र चला, जो युग-युग से चलता आया ।

शोषित पीड़ित मानवता को, दानव सदैव छलता आया ।

कितने युवकों को तड़पाए, नहला कर हिम-जल धारा में |

कितने लालों के प्राण लिए, काली अंधियारी कारा में ||

जब राष्ट्रीय-अस्मिता और गौरव पर प्रबल प्रहार हुए।

तब देव-शक्तियाँ जाग उठीं, छिड़ गए समर, संहार हुए।

इस राष्ट्र-यज्ञ की वेदी पर, हर माँ का प्यारा ‘लाल' लुटा।

जाने कितनी ललनाओं के, जीवन का अरुणिम् भाल मिटा ।।

हर नौजनवान के हाथों में, लिपटी जेलों की हथकड़ियाँ।

कर दीं अर्पित माँ-चरणों में, पूजा में मुण्डों की लड़ियाँ ।।

गोरों के खूनी-खंजर से, बंदी आत्माएँ सिहर उठी ।

असहाय जनों के क्रन्दन से, तब महाक्रान्ति की लहर उठी।

उस 'हिंस'

घर-घर में अलख जगाने को, फिर तिलक-गोखले मचल पड़े।

साइमन

के

सम्मुख,

थे वीर लाजपत अचल खड़े।

मैं अमिट अंश उस जीवन का, जो कारागृह में पलता है।

मैं कौन! कहां पर रहता हूँ, यह तो इतिहास बताता है ।।

अलमस्त चन्द्रशेखर मैं ही, 'आजाद' मुझे सब कहते थे।

मेरा घर तो बंदीगृह था, जिसमें सब साथी रहते थे ।।

जब पड़ी लाठियाँ अनगिनती, पंजाब-केसरी' लाला पर।

विकराल रोष की लहर उठी, मेरे साहस की ज्वाला पर ।